हिन्दी ब्लॉगरी में ' शत घूर्णावर्त तरंग भंग उठते पहाड़' अभी कम ही रहना चाहिए।
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हाँ, “ तरंग भंग उठते पहाड़ ” की तर्ज पर क्रांति का बिगुल बजाना और उलट पलट करना हो तो बात और है..
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मैं पुरुष शरीर पर ऐसा कुछ रचना चाहता हूँ: शत घूर्णावर्त तरंग भंग उठते पहाड़ जल राशि राशि पर चढ़ता खाता पछाड़ तोड़ता बन्ध प्रतिसंध धरा हो स्फीत वक्ष दिग्विजय अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष
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“..शत घूर्णावर्त तरंग भंग उठते पहाड़ जल राशि राशि पर चढ़ता खाता पछाड़ तोड़ता बन्ध प्रतिसन्ध धरा हो स्फीत वक्ष दिग्विजय अर्थ प्रतिपल समर्थ बढ़ता समक्ष..” _________________________ कौवा और मोर पर कछु कहूँगा तो आप और बिद्वान जन कहेंगे कि देखो कउवा मोरों के आगे नाचने की कोशिश कर रहा है।